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कौन हमारा सर काटेगा / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी


कौन हमारा सर काटेगा
अपना ही ख़ंजर काटेगा

आवारा बादल बिन बरसे
झीलों के चक्कर काटेगा

लंबे काले पंखों वाली
जुगनू तेरे पर काटेगा

सोच के नेकी करता है वो
बदले में सत्तर काटेगा

बोने वाले भूल रहे हैं
फ़स्लें तो लश्कर काटेगा

ऊपर वाला ऊँचे सर को
अंदर ही अंदर काटेगा

कुछ भी हो दिल्ली के कूचे
तुझ बिन मुझको घर काटेगा

आबे-रवाँ है और ’मुज़फ़्फ़र’
पानी से पत्थर काटेगा