चिर-पिपासित ज़िन्दगी की रेत पर
मधु की लहर सी
स्निग्ध झीनी-सी किरण-रेखा
अमावस की घड़ी में
नियति के इस मेघ संकुल व्योम की
छवि-तारिका अभिसारिका सी
कालिमा में लालिमा सी
आँकती हो, झाँकती हो, ताकती हो
मूक मन का प्यार लेकर
ज्वार लेकर
कौन हो तुम...!
दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी
खिलखिलाती
तिलमिलाती साधना की तप रही
वंकिम डगर पर
कामना के सूखते से
वृंत पर स्वर कोकिला सी
गा रही हो स्वर मिलाकर
श्रृंखला गति की बनाकर
तुम निरंतर...
ज्योति जीवन की जगाकर
कौन हो तुम...!
काँपते मन की निराशा के
क्षितिज का छोर छूती
भोर की दूति उषा की
आँख में रेखा अरुण की
पाँव पाँवों से मिलाती स्वर मिलाती,
सुर मिलाती गीत गाती
चल रही हो मुस्कुराती
इस तूफाँ की रात में भी
दीपिका सी
झिलमिलाती
कौन हो तुम...!
गाँव की पगडण्डियों पर
प्राण के विस्तृत गगन में
सृजन की अयि पुर्णिमे?
तुम कौन हो, क्या हो, कहाँ हो?
साँस पर, उच्छवास पर, नि: श्वास पर
अपलक थिरकती
साधना में, भावना में, अर्चना, आराधना में
शून्य में भी पल रही हो,
चल रही हो, जल रही हो
ढ़ल रही हो ज्योत्स्ना सी
कौन हो तुम...!