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कौवों का दर्द / सुभाष शर्मा

कौवा कौवा है
काला है,
तो उसका क्या कसूर है
कोयल की कूक
पंचम स्वर का गीत
मधुर है,
सुघड़ है
मगर कोयल
क्यों नहीं कूकती रोज प्रातः
क्यों नहीं जगाती सारी दुनिया

जानती है सारी दुनिया –
अखबारों की खबरें
नहीं जगातीं लोगों को,
बल्कि रोज अहले सुबह
कौवे का काँव-काँव जगा देता है
बूढ़ों/बच्चों/जवानों को
रात के दर्द की याद दिलाकर
कहता है –
यात्रा जारी है,
संघर्ष जरूरी है !
पर भूल जाते हैं सब
यह कटु सत्य
अलानाहक ।
कौवे सोच रहे हैं
कुछ करने को
मिलकर/जुटकर
कहते हैं कौवे—जब सदियों से
बगुलों ने मछलियाँ गटकी हैं
फिर भी 'भगत' कहाया है,
अपना पखना और अधिक
सफेदी में चमकाया है
तो उन्हें हमारी आवाज
काँव-काँव लगी है
उनके सीने में सीधे
तीर-सी गड़ी है !
अरे ! हमारी नारियों पर
खुद तो फिदा हुआ,
उन पर 'पंचम स्वर' की मुहर लगा
हमसे जुदा किया
बिना तलाक के
हमारे परिवारों को
टुकड़ों में बाँट दिया
जब-जब हम बोले
'काला/कठोर' कहकर हमें डाँट दिया
लेकिन सुन लो
काल खोलकर
हम मंडेला के साथी हैं
अब कोयल हमारे साथ है
दोनों के मिले हाथ हैं ।