(मुक्तिबोध को याद करते हुए)
एक तान हूं अपनी उठान में लड़खड़ा गया-सा
एक शाम हूँ उदास गली की
जिसका दरवाज़ा एक असम्भव इन्तज़ार में है सदियों से
राह पर अपनी जितनी ही बड़ी ज़िद लिए खड़ा
एक शिशु हूँ जिसे एक खिलौना चाहिए
जो बैटरी लगाने पर भी चलता-बोलता
और ह~णसता नहीं है
विवशता हूँ एक ग़रीब पिता की
एक माँ का खुरदरा हाथ हूँ
दूर किसी गाँव में
एक किसान की नीली पड़ती देह हूँ
जिसके माथे पर खुदा है एक देश
जिसका नाम हिन्दुस्तान है
क्या करोगे मेरा
क्या कहोगे मुझे
हूँ मैं
कविता में एक निरर्थक शब्द हूँ
चुभता तुम्हारी उनकी सबकी आँख में
देश की सबसे शक्तिशाली और इस तरह
एक सुन्दर महिला के चित्र पर
बोकर दी गई सियाही हूँ
तो क्या सिर्फ़ यह कहने के लिए ही
मेरा जन्म हुआ है
कँटीली झाड़ियों के इस जंगल में
चलो कह रहा हूँ कि मेरा नाम विमलेश त्रिपाठी
वल्द काशीनाथ त्रिपाठी है
और मेरे होने
और न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ना तुम्हें
फिर भी कहूँगा कि
फ़िलहाल तुम्हारे सारे झूठ के बरक्स
जो सच की एक दीवार खड़ी है
उस दीवार की एक-एक ईंट अगर कविता है
तो जैसा भी हूँ
कवि हूँ मैं
सुनो, मेरे साथ करोड़ों आवाज़ों की तरंग से
तुम्हारी तिलस्मि दुनिया की दीवारें काँप रही हैं
और बहुत दूर किसी दुनिया में बैठा एक कवि
बीड़ी के सुट्टे मारता
तुम्हारी बेबसी पर मुस्कुरा रहा है...।