क्या खंडित आशाएँ ही हैं धन अपने जीवन का? क्यों टूट नहीं जाता है धीरज इस कुचले मन का? कहते हैं, घटनाओं की पहले घिरतीं छायाएँ- क्यों नहीं मिलन-क्षण में ही फिर मेरा माथा ठनका? 1936