वो
जो रूई की बनी थी
उसका अंग अंग
उतना ही कोमल था
जितनी कोमल थी
आंगन में खड़े
सेमल की रूई,
वो चलती थी तो
ऐसे जैसे
हवा में तैर रहे हों
सेमल के फुंदे
वो मेरे
दिलो-दिमाग पर छाई
और
अपनी कोमलता को
बाँटती बर्बाद हो
अनंत आकाश में
फैल गई
व्याप गई
कण-का में
उसे अपनी बाँहों में
समेटने नभ भी छोटा था।