Last modified on 13 अप्रैल 2014, at 13:18

क्या दूँ मैं उपहार / तारा सिंह

माँ! मैं चिंतित हूँ सोचकर
कि तुम्हारी आजादी की
चौसठवीं साल गिरह पर
तुमको मैं क्या दूँ उपहार

फ़ूल अब उपवन में खिलते नहीं
कलियाँ चमन में चहकतीं नहीं
पर्वत का शीश झुकाकर, अपना विजय –
ध्वज फ़हराने, हमारे राष्ट्रदेवता ने गुंजित
वनफ़ूलों की घाटियों को दिया उजाड़

कहा, मुँहजली कोयल काली
इन्हीं वनफ़ूलों की डाली पर बैठकर
जग को निर्मम गीत सुनाती
रखती नहीं, दिवा-रात्री का खयाल
हम नहीं चाहते, अंतर जग का
नव निर्माण इसके जीवित आघातों से हो
हमने इसके फ़ूलते संसार को दिया उजाड़

हमें न हीं चाहिये, डाली पर बैठे फ़ूल
जो छुपाकर रखता, अपने कर में शूल
जिसके स्लथ आवेग से, कंपित धरा की
छाती, उठा नहीं सकती जग का भार
जिसके धूमैली गंध को फ़ाड़कर ऊपर जा
नहीं सकता, उलझकर जाता विश्व का सब नाद

नीड़ छिना बुलबुल चंचु में
तिनका लिये, वन-वन भटक रही
सोच रही,कहाँ बनाऊँ अपना आवास
हरीतिमा साँस लेती, कहीं दिखाई
पड़ती नहीं, दहक रही फ़ूलों की डार

देश आज घृणित, साम्प्रदायिक
बर्बरता से निवीर्य,निस्तेज हो रहा
कोई सुनता नहीं उसकी पुकार
जाने कौन सी नस हमारे राष्ट्र
देवता के, कानों की दब गई

जो वह बधिर हो गया
पहुँच पाता नहीं, रोटी के लिये
बिलखते बच्चों की करुणार्थ आवाज
ऐसे में तुम्हीं बताओ, माँ, तुम्हारी
आजादी की चौसठवीं साल गिरह पर
तुमको, मैं क्या दूँ उपहार