मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया 
उनका जंगल 
उनके पेड़ 
उनके घोंसले 
उनके वंशज 
यह आसमान जहाँ खड़ी होकर 
आँजती हूँ आँख 
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में 
तोलती हूँ अपने पंख 
यह पन्द्रहवाँ माला मेरा नहीं उनका था 
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे 
मैंने बाघों से शौर्य छीना 
छीना पुरुषार्थ 
लूट ली वह नदी 
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर  
तब पीते थे कलेजे तक पानी 
उन्हें नरभक्षी कहा 
और भूसा भर दिया उनकी खाल में 
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में 
धरती से सब छीन कर मैंने तुम्हें दे दिया 
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया  
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया 
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए 
चुराई हुई नदी बाँध रखी अपनी आँखों में 
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच  
क्या सोचती होगी पृथ्वी 
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में