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क्या हसीन ख्वाब है / हरिवंश प्रभात

क्या हसीन ख्वाब है, रुतबे बेमिसाल है,
मेरे गुप्तकाल में अनेक, स्वर्णकाल है।

बेचकर ज़मीन हमने आसमां खरीद ली,
इससे उससे जिससे चाहा कहकशां खरीद ली,
फाके में भी मस्तियाँ, उमंगें हैं, उछाल है।

पूछना क्या, देखना क्या, मैं जहाँ चला गया
जहाँ भी देखा अंधकार, एक दीया जला गया,
ठोकरें जहाँ मिलीं, वहीं मिले रूमाल है।

काली रात आई वह भी चाँदनी लुटा गयी
याद उसकी आई, राग-रागिनी सुना गयी,
निगाह में ज्यों कुसुम कली, वश में ज्यों त्रिकाल है।

एक अभाव आया वह भी, सीख दे चला गया
जो अलभ्य था उसे करीब दे चला गया,
रोनेवालों के जिम्मे में, जलजला भूचाल है।

जहाँ पर रख दिया चरण, वहीं कमल खिला दिया
जहाँ पर सर उठा दिया, पहाड़ भी हिला दिया,
जहाँ ज़ुबान खोल दी, सत् श्री अकाल है।

चाहता हूँ देश में कोई नहीं दुखी रहे
घर की बेटी लक्ष्मी हो, सब कोई सुखी रहे,
ऐसा दिन हो सर्वदा, जहाँ नहीं सवाल है।