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क्या होता / गिरिजा अरोड़ा

क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?
सच पूछो तब हँसने का भी मौसम न होता।
काँटों की जो सेज न होती, फूल कहाँ पर सोते?
जो ये काली रात न होती, ओंस कहाँ पिरोते?
सुबह सूर्य के दर्शन कर फिर क्यों इतना इतराते?
इतना खिला खिला तब कोई उपवन न होता,
सच पूछो तब हँसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?

प्यास से न कंठ तरसते पानी अमृत क्यों बनता?
चिलचिलाती धूप न होती, बादल क्यों बरसता?
गरज बरस कर जो धरती से अंबर न मिलता,
हरा भरा धरती पर इतना जीवन न होता
सच पूछो तब हँसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?

विरह का जो दर्द न होता मिलना किसको कहते?
रातों की जो नींद न उड़ती, थककर कैसे सोते?
सुनहरे सपनों को तब किसके नयन पिरोते?
नित नूतन तब मानव का मन न होता।
सच पूछो तब हँसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?

देखी जो हार न होती जीत खुशी न देती।
सुख के आँसू कैसे सहती जो आँख कभी न रोती।
खुद न जलती लौ तो फिर तम कैसे हर लेती?
रात न होती, दिन भी इतना उज्जवल न होता।
सच पूछो तब हँसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?
सच पूछो तब हँसने का भी मौसम न होता।