हो गई क्या हमसे
कोई भूल?
बहके-बहके लगने लगे फूल!
अपनी समझ में तो
कुछ नहीं किया,
अधरों पर उठ रही शिकायतें
सिया,
फूँक-फूँक कदम रखे,
चले साथ-साथ,
मगर
तन पर क्यों उग रहे बबूल?
नज़रों में पनप गई
शंका की बेल,
हाथों में
थमी कोई अजनबी नकेल!
आस्था का अटल सेतुबंध
लड़खड़ाता है
हिलती है एक-एक चूल!
रफू ग़लतफ़हमियाँ
जीते हैं दिन!
रातों को चूभते हैं
यादों के पिन
पतझर में भोर हुई
शाम हुई पतझर में
कब होगी मधुऋतु
अनुकूल
तन पर...