Last modified on 8 अगस्त 2012, at 17:21

क्यों आज / अज्ञेय

हम यहाँ आज बैठे-बैठे
हैं खिला रहे जो फूल खिले थे कल, परसों, तरसों-नरसों।
यों हमें चाहते बीत गये दिन पर दिन, मास-मास, बरसों।

जो आगे था वह हमने कभी नहीं पूछा :
वह आगे था, हम बाँध नहीं सकते थे उस सपने को
और चाहते नहीं बाँधना।

अन्धकार में अनपहचाने धन की
हम को टोह नहीं थी, हम सम्पन्न समझते थे अपने को।
जो पीछे था वह जाना था, वह धन था।

पर आकांक्षा-भरी हमारी अँगुलियों से हटता-हटता
चला गया वह दूर-दूर
छाया में, धुँधले में, धीरे-धीरे अन्धकार में लीन हुआ।
यों वृत्त हो गया पूर्ण : अँधेरा हम पर जयी हुआ।

क्यों कि हमारी अपनी आँखों का आलोक नहीं हम जान सके,
क्यों कि हमारी गढ़ी हुई दो प्राचीरों के बीच बिछा
उद्यान नहीं पहचान सके-
चिर वर्तमान की निमिष, प्रभामय,
भोले शिशु-सा किलक-भरा निज हाथ उठाये स्पन्दनहीन हुआ।

क्यों आज समूची वनखंडी का चकित पल्लवन सहज स्वयं हम जी न सके
क्यों उड़ता सौरभ खुली हवा का फिर जड़-जंगम को लौटे-हम पी न सके?
क्यों आज घास की ये हँसती आँखें हम अन्धे रौंद सके
इस लिए कि बरसों पहले कल वह जो फूला था
फूल अनोखा
अग्निशिखा के रंग का सूरजमुखी रहा?

जेनेवा, 12 सितम्बर, 1955