मन
उदधि-सा
तन
दूर बजती
मीठी, सुरीली तान-सा
बन जाए ।
कैसा हो
घर छोड़ सब
बैठें किसी जगह
मिल बाँटकर
रोटी खाएँ
पिएँ
जल झरनों का
नील गगन तले
सो जाएँ
कोयल कूके
नाचे मोर
कंधा बने
मुनिया का ठौर
मन मिल जाएँ
थामें हाथ…
क्यों न चल पड़ें
हम एक साथ ।