क्यों वो लगते हैं मुझे चाहने वालों की तरह
खोदते हैं जो मेरी जड़ को कुदालों की तरह
जो बचाते रहे हर वार से ढालों की तरह
अब वो लगते हैं क्यों बीमार ख़यालों की तरह
भोर होते ही उन्हें भूल गई क्यों दुनिया
रात भर ख़ुद को जलाये जो मशालों की तरह
मेरी आँखों का ये धोखा है, या है सच्चाई
ये उजाले नहीं लगते है उजालों की तरह
ग़ज़नवी आज भी इस मुल्क के अन्दर हैं बहुत
तोड़ देते हैं जो इन्सां को शिवालों की तरह
छोड़ कर उड़ गए अल्फाज़ बाज की मानिन्द
थरथराते हैं मेरे होंठ, डगालों की तरह