क्यों सँवरती हो / कविता पनिया

अरे टहनी
ज़रा बताओ तो
हर वसंत तुम इतना क्यों सँवरती हो
फूलों के बोझ से
हवाओं संग कितना लचकती हो
नयनाभिराम बन मधुकर का मन मोह लेती हो
अलबेली सी बेल
मेरे आँगन में महक रही हो
देखो कितना सुखद है
तुम्हारा यूं भर जाना
कैसे तुमने तितली भंवरे की गुंजार से
पतझड़ की पीड़ा का सन्नाटा हर लेती हो
हर वसंत क्यों संवरती हो

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