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क्यों हमेशा मन डरा-सा / अमरेन्द्र

क्यों हमेशा मन डरा-सा,
कुछ कहीं भी हो जरा-सा !

रोम सिहरे जब निहारा
टेसू सिहरे लाल रत-रत,
कुछ भरम में ही रहा कि
ले न पाया नीर-अक्षत;
जब मिला जीवन, डगर पर
मृत्यु समझा, हट गया मैं,
मोरपंखी पूर्णिमा में
चाँदनी से कट गया मैं;
जबकि मधुघट है जगत यह,
हाथ आया विष भरा-सा।

क्या किया मैंने विषम है
सम नहीं मुझसे रहा जग ?
क्या कमी मुझमें दिखे जो
दीन मेरे डेग, हर पग ?
फूल की आँखें कटीली,
साँस में चुभती हवाएँ,
देवता के लोक से क्या
प्राण मेरे लौट जाएँ !
हो वचन मिथ्या कहा यह,
‘जो अपर है, वह परा है।’