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क्यों हारा मन / प्रेमलता त्रिपाठी

सुहाना लगता है हर दिन, बहे सर्जन की धारा मन।
नयी चेतना भर दो माते, साधक बने हमारा मन।

काम क्रोध मद लोभ मोह सब, अरि हैं अपने जीवन के,
अंतस में बैठी कटुता से, रहता है क्यों हारा मन।

चिंतन हो यदि सत्कर्मो का, संधान करें हम अनुपम,
नया उजाला लेकर आयें, काटे सब अँधियारा मन।

मन दर्पण में सदा निहारें, है कर्तव्य हमारा क्या,
कर्म मनुज के पूरे होंगें, बनता एक सहारा मन।

काम नहीं छलबल से बनता, व्यर्थ आपसी झगड़े हों,
पिसता अखिल समाज सदा क्यों, रोता है बेचारा मन।

करें दूर मिल लाचारी अब, जग जाये जन-जन जीवन,
महक उठेगा नगर गाँव फिर, गायेगा बंजारा मन।