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क्रांति / बाल गंगाधर 'बागी'

तेरी प्रतिक्रांति थमी, न मेरा हथियार रुका है
सुनो मेरी अस्मिता का न अभी संसार मरा है
सुनो तुम्हारा लक्ष्य, कभी वर्चस्व न हो पाएगा
हमारे जंग की चिंगारियों का, न प्यास बुझा है

परस्पर मेरे, आखिर तुम कब तक चलोगे
तुम्हारे रातों के अंधेरे में न मेरा सूर्य ढला है
आतंकी मन, कूटनीति में छिपा के जीते हो
अब विषमता अग्नि का चूहू, श्मशान जला है

कितनी इमारतें कल्पना के, दलदल में फंसी
वे नहीं हैं पर सवाल हजारों साल रहा है
बग़ावत करना ‘बाग़ी’ का स्वतंत्र स्वभाव तो है
जलजलों के ख़िलाफ जिसका न तूफान था है