प्रिय मित्र,
क्रान्तिकारी जयभीम !
जब तुम उदास होते हो
तो सारी सृष्टि में उदासी भर जाती है
थके आन्दोलन सी आँखे
नारे लगाने की विवशता
ज़ोर-ज़ोर से गीत गाने की रिवायत
नही तोड़ पाती तुम्हारी ख़ामोशी
मुझे याद है —
1925 का वह दिन
जब तुम्हारे चेहरे पर
अनोखी रौनक थी
सँघर्ष से चमकता तुम्हारा
वो दिव्य रूप
सोने चान्दी से मृदभाण्ड
उतर पड़े थे तालाब में यकायक
आसमान ताली बजा रहा था
सितारे फूल बरसा रहे थे
यूँ तो मटके पकते है आग में
पर उस दिन पके थे चावदार तालाब में
आई थी एक क्रान्ति
तुम्हारी बहनें उतार रही थीं
हाथों, पैरों और गले से
ग़ुलामी के निशान
और तुम दहाड़ रहे थे
जैसे कोई बरसों से सोया शेर
क्रूर शिकारी को देखकर दहाड़े
मुझे याद है — आज भी वो दिन
जब चारों तरफ जोश था
और उधऱ
एक जानवराना क्रोध था
तुम बढ़ रहे थे क्रान्तिधर्मा
सैकड़ों क्रान्तिधर्माओं के साथ
उस ईश्वर के द्वार
जिसे कहा जाता है सर्वव्यापी
पर था एक मन्दिर में छुपा
उन्होने रोका, बरसाए डण्डे
पर तुम कब रुके ?
तुम आग उगल रहे थे
उस आग में जल रहे थे
पुरातनपन्थी क्रूर ईश्वरीकृत कानून
हम गढ़ेंगे अपना इतिहास
की थी उस दिन घोषणा तुमने
दौड़ गई थी शिराओं में बिजली
उस दिन,
जो अभी तक दौड़ रही है
हमारी नसों में, हमारे दिमाग में
और हमारे विचारों में