इस जेल की ऊँची चहारदीवारियों
के उस पार
तुम्हारे विशाल हृदय के स्पन्दन को
हम सुन रहे हैं लगातार
मेरे दोस्तो !
तुम उस पार
अपनी-अपनी बैरकों में
नित नए सूरज को उगाने के
सजा रहे होगे सपने
उनकी किरनों की नई कोपलें
फूट रही होंगी अनवरत
तुम्हारी आँखों के सामने
छोटी-सी काल कोठरी में
तुम्हारे मज़बूत क़दमों के नीचे
अँगड़ाई ले रही होगी धरती
उसी तरह
जिस तरह आसन्न-प्रसवा माँ
शिशु को जन्म देने के वक़्त
भोगती है मीठा दर्द
इस पार से तुम्हें
मैं देख नहीं सकता
तुम्हें छू नहीं सकता
चूम नहीं सकता
सिर्फ़ अनुभव कर सकता हूँ
कर रहा हूँ
भागलपुर की इस कैम्प जेल में
बन्द हूँ
बिहार के चार सौ शिक्षकों के साथ
जो रात-दिन सोचते हैं
’ग्रेड’ के बारे में
झल्लाते रहते हैं ’जेल मेनुअल’ के लिए
चिन्ता करते रहते हैं
खसियों, मछलियों, मुर्गों या फिर
’ब्रेड‘ और ’बटर‘ की
सच कहता हूँ, दोस्त !
हमने समूह में एक बार भी
नहीं सोचा
अपने प्रकाशदाता के सम्बन्ध में
सूरज की नई खेती
लगाने वालों के सम्बन्ध में
यद्यपि
हम दावा करते हैं
कैम्पसों में सूरज की फुलवारी लगाने का
जिसमें खिलता है सिर्फ़
अन्धेरे का सूरजमुखी
तुम्हारी तरह
ऐसे लोग बहुत कम हैं, दोस्त !
जो रात में भी
डालियों पर
किरनों की पँखुरियों वाले
सूरजमुखी बन जाते हैं
हमारे सपने
प्रशान्त और उनके साथी हैं
जो नए सूरज तक पुल बनाने में
हो गए शहीद
तुम उसी अधूरे बने पुल के
नए-नए पाये हो, दोस्त !
जेल की इस ओर से
भेज रहा हूँ सलाम ।