Last modified on 21 फ़रवरी 2011, at 11:16

क्रूरता / ब्रज श्रीवास्तव

भावना की सहजता पर
मारती है ठहाका

अपना शिकार मानती है मन ही मन
खिलने देती है उसे भरपूर
और जब वह करती है
कुछ मासूम-सी अपेक्षाएँ
गला मसक देती है धोखे से
गहरा सन्तोष महसूस करती है
मनाती है एक और जश्न

जाँच करती है लाश की भी
मारकर धीरे-धीरे लाठी
मुत्तमईन होती है कि हाँ
अब पूरी तरह मर चुकी है भावना

सो जाती है तब क्रूरता
चैन की नीद से।