इन दिनों परिदृश्य
ऐसा लगता है
इतिहास अनचीन्हे
लम्हे हर धूसर सांझ पलटता है
कभी महसूस होता है
वरसों पहले के विशाल हरे भरे चरागाहों के समीप बहती सदानीरा
भूरे बदरंग मैदानों में पानीदार निगाहों से बिछड़ गई है
भूगोल बदल गया है
विगत मुष्टिका से फिसल
एक वक्फा़ जीवन पा गया है
और मैदानों की निर्जीव आंखें देख
मूर्छित हो गया है
और मूर्छा में ही प्रलाप करते
क्रौंच विरह की गाथा गा रहा है