ओ, क्रौंच मिथुन
तुम कभी नहीं बिछुड़ते-
एक दूसरे से-
कभी दूर नही होते ।
मैंने देखा अक्सर तुम्हें-
धान के भरे खेतों में
या दलदली
ज़मीन में
अपने आहार और आनंद के लिए
तुम्हें शान्त विचरते देखा है ।
तुम्हारे जैसा प्रेम
यदि मनुष्यों के बीच
भी होता-
तो यह धरती
इतनी दुःखी और दुष्ट
न होती ।
जब तुम उड़ते हो लयबद्ध
मंद-मंद
आकाशीय पंख फैलाए
तब मैंने तुम्हारी आवाज़ में
तूर्यनाद जैसी
मेघ गर्जन की ध्वनियाँ सुनी हैं ।
प्रजनन क्षणों में
तुम आत्मविभोर होके
नृत्य करते हो
जैसे विराट प्रकृति का
अभिवादन कर रहे हो-
एक-दूसरे को मोहित करने के लिए ।
तुम दिव्य किलोलें करते हो ।
सरकण्डों और घास के
खेतों के बीच
तुम अपना नीड़
बुनते हो ।
हिंस्र पशुओं से अपने शिशुओं की
रक्षा करते को
उनसे लड़ते हो...
ओ क्रौंच मिथुन
तुम वाल्मीकि की कविता में
अमर हो ।