Last modified on 17 फ़रवरी 2017, at 13:27

क्षण की अर्थवर्त्ता / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

मेघ घिरा
आकाश
अचानक तनिक खुला
पश्चिम में,
डूबते सूर्य की नर्म धूप
जा बैठी
पूरब के वृत्ताकार
सधन कजराये वृक्षों के शिखाग्र पर
स्वर्ण पीताभ आम के
अनगिन बौर लग गये,
दक्षिणाकाश के
टूटे हुए सप्तरंगी ने
हँसकर कहा-क्षण के भाग
जग गये।

वस्त्रों में-
सिमटी
ठिठुक
चलती सासुरे के तौर,
आगे
लाला बाँकुरे धरे सिर-
पगड़ी मौर;
गति से गली को झुमाते
गीत गाते,
ग्राम बधुओं को मंडप सिराते
देखा किये
अपनापन दिये...
देखा किये;
अचानक लोर टूटी
चिकोटी काटकर भागी-
अयानी व्यथा
एक और।