शायद ऐसे ही टूटता है हर सपना
रिश्तों का बंधन, हर अरमान
टंग जाती है सूली पर
विश्वास की डोर भी
सहर से शाम तक का सफर
पल में ही तय हो जाता है
धरती का रेगिस्तान होना
शायद षुरु होता है यहीं से ही
प्यासी नजरों का यूं सिमट जाना
लबों की खामोशी की लंबी पारी
पसार देती है अनजान डर की सुगबुगाहट
शायद यहीं से मरती है
तेरे मेरे आंगन की बहार भी
जोश के मरते ही
मर जाता है बहुत कुछ
और पीछे रह जाता है सिर्फ
एक कड़वा एहसास
कुछ जले हुए ख्वाब।