क्षण-भर सम्मोहन छा जावे!
क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल-
ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल,
मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे!
मेरा ध्यान अकम्पित है, मैं क्षण में छवि कर लूँगा अंकित,
स्तब्ध हृदय फिर नाम-प्रणय से होगा दु:सह गति से स्पन्दित!
एक निमिष-भर, बस! फिर विधि का घन प्रलयंकर बरसा आवे
क्रूर काल-कर का कराल शर मुझ को तेरे वर-सा आवे!
क्षण-भर सम्मोहन छा जावे!
अजमेर, 4 नवम्बर, 1940