पतित जन के पतित मुख से
कढ़ै जो प्रार्थना वाणी
हृदय में आह हो, तन में
तपन हो, आँख में पानी
बहा परिताप के आँसू
न धोता मैल जो उर का
नहा कर सुरसरी में भी
न होता पूत वह प्राणी
हुआ है शान्त यह नभ में
बरस करके जलद जी भर
रुको मत आँसुओं मेरे
बनो मत आज अभिमानी
सुमन ने फाड़कर अपना
हृदय दिखला दिया नभ को
छिपाता पाप को प्रभु से
वृथा रे जीव अज्ञानी
बना उसके चरण-रज को
विनत निज माथ का चन्दन
क्षमा का दान देगा ही
कभी तो वह महादानी
-सरस्वती, जून, 1918