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खण्ड-10 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

"सच कहता हूँ, सच ही निकले, प्रेतलोक की माया
उससे तो अब कही न कम है, दुनिया की यह छाया
जंगल का श्मशान सुलगता, गिरि का भवन शिवाला
ऋषि की कुटिया उजड़ी-पुजरी, मठ का टूटा ताला
कोट-कचहरी-थाना-संसद, सबके सब बदनाम
प्राणों का व्यापार चला है, अब तो आठो याम
यहाँ सुनो अस्मत की चोरी, वहाँ डकैती खुल कर
चलता-चलता युग यह अपना कहाँ आ गया चल कर
जितनी सबने स्वर्गलोक की चर्चा की धरती पर
काश कभी यह हो पाती भी धरती की परती पर
तो यह हवा न माहुर होती, कभी न विष ही यह जल
और न अपना अन्तरिक्ष यह कजरोटी का काजल
सूर्य उगलता क्या यह आगिन, आवां-सा यह दिखता
धरती की लिख ! स्वर्गलोक की क्या कविता है लिखता
अगर नहीं होगी यह धरती, होगा स्वर्ग कहाँ पर
स्वर्ण-सौध क्या टिका रहेगा, वह जो खड़ा धुआँ पर?
जो प्रत्यक्ष है, उसका तो विश्वास नहीं है नर को
खोज रहा है शून्य रंध में मणि-माणिक के घर को
मैं धरती के लिए अगर कुछ कर पाया थोड़ा-सा
भू के सौम्य भवन में कोई पत्थर ही जोड़ा-सा
अगर किसी रोते के आँसू पोछ सका मैं कर से
समझूंगा कि मुक्त हुआ मैं, लटका हुआ अधर से
रंज नहीं होना मुझसे तुम, क्रिया छोड़ क्या जग है ?
सत्कर्मो से, नर सेवा से, निखिल भुवन जगमग है
इसीलिए शायद मैं, तेरे जग से कटा हुआ हूँ
चैथी का मैं चाँद संभाले शिव से सटा हुआ हूँ।

‘‘बहुत ज्ञान की बातें सुन लीं, दर्शन सुना तुम्हारा
टिके नहीं तुम एक बात पर, सबका लिया सहारा
ऐसा क्यों है, शांत दिखे तुम, और कभी तो क्रुद्ध
कभी विरागी जग से देखा, रागी, कभी तो बुद्ध
कभी नियति, प्रारब्ध-कथा को बातों में कह डाला
जन्मों की लड़ियाँ भी देखी मृत्यु-जन्म की माला
और सभी के बाद तुम्हारा एक वही विश्वास
वर्तमान का भूत सत्य है, सत्य वही जो पास।’’

‘‘तुमने जो कुछ कहा, झूठ क्या; लेकिन सत्य यही है
जो नर करता, वही भोगता, इतनी बात सही है
इस जगती के पार कहीं कुछ जीवन शेष नहीं है
इसी जन्म में क्लेष-व्याधि है, आगे क्लेष नहीं है
मुझ पर मेरे पूर्वज का जो संस्कार है छाया
वह तो निश्चय बीच-बीच में फैलायेगा माया
मुझको ज्ञात यही इतना है, प्रकृति-खेल है जीवन
सिकुड़ा तो यह शून्य-शून्य है, फैला तो यह तन-मन
श्रेष्ठ वही मन, श्रेष्ठ वही तन, श्रेष्ठ कर्म में लीन
वही शेष के बाद ठहरता; काल-पीठ आसीन
नीच कर्म में लीन मनुज की चर्चा ही रुक जाती
यही मृत्यु और पुनर्जन्म है, और नहीं कुछ थाथी
इसीलिए इस कोशिश में ही चलता रहा अकेला
भले निकट ही संध्या मेरी, संझवाती की बेला
तब भी जोर-जोर से देखो, कैसे बोल रहा हूँ
भले बोलने-कहने में पत्ते-सा डोल रहा हूँ
लेकिन कभी नहीं चूकूंगा, जो सच है, कहने से
भार बहुत कम हो जाता है, आँसू के बहने से
सच तो सचमुच ही कठोर है, कहना और कठिन है
सच कहने वालों पर दुनिया फण काढ़े नागिन है
लेकिन डरना क्या मिट्टी, जल, पावक और पवन से
वाणी मेरी होड़ ले रही, जब है नील गगन से
कौन जला मेरी बातों से, किसने जीवन पाया
कह कर कितना पाप किया, और कितना पुण्य कमाया
इसका क्या हो लेखा-जोखा, सब कुछ छोड़ रहा हूँ
जहाँ कभी न गया, उधर ही खुद को मोड़ रहा हूँ।

‘‘फिर मत इसका अर्थ बनाना, मति को जो भरमाए
सत्य वही स्वीकार सभी को जितना समझ में आए
अगर तुम्हें लगता, तुम सच हो, सत्य तुम्हारी बातें
तो क्यों मिटतीं नहीं दिवस की घोर अंधेरी रातें
क्यों बैठा है स्वर्गलोक में सृष्टि नियामक त्राता
अनाचार, अपमान धरा पर; फिर भी मौन विधाता
लता-गुल्म को रौंद रहे जब खुले साँढ़ सब खुल कर
उठे त्राण को देवालय में सहमे हुए विपुल कर
इसको भी प्रारब्ध कहोगे, याकि नियति का खेला
तुमको तो बस यही लगेगा, यह माया का मेला
जो कुछ भी घट रहा, झूठ है; जो न घटे वह सच है
सुन कर यह सब कथा पुरातन, मन यह बहुत अकच है
जो भी विधि का बधिक यहाँ है, सत्ता उसके संग है
सभाभवन ऊपर से नीचे, जब देखो तब भंग है
परदेशी का ऐश-मौज है, देशी पर है पहरा
नहीं दिखाई देगा तुमको, घाव बहुत है गहरा
रिश्ते सारे सजे हुए हैं बाजारों में अब
कत्र्तव्यों पर नाच रहा है पूंजी का करतब
खेतों में लोहे के दाने, सरसों का रंग काला
कातिक-अगहन की काया पर पूस-माघ का पाला।

‘‘कोई यहाँ फरारी देखा, कोई और लुटेरा
मंदिर में मूर्ति का भंजक डाले हुए हैं डेरा
उस भंजक के साथ मूर्ति के रक्षक का सौदा है
तुलसीचैरा पर तुलसी का ही सूखा पौधा है
भक्त लगे भयभीत, भरोसा टूटा हुआ सभी का
महिषासुर के माथे पर है, चन्दन, तण्डुल-टीका
मंदिर के बाहर भेड़ों की दिखतीं लगी कतारें
वेदी पर किसके शोभित की बहती हैं ये धारें
किस पर्वत पर भाग चलूँ मैं, किस जंगल में बस लूँ
किसी गुफा में किसी लता से गर्दन अपनी कस लूँ
फिर मन कहता, दृश्य बदलने वाला है; मत भागो
इतना क्या अवसाद ठीक है, इसे तुरत ही त्यागो
जैसे-तैसे अपने को मैं तो संभाल हूँ लेता
यही सोच कर आने वाला सत्युग द्वापर-त्रोता
जब लड़ियों में बंधा हुआ है, काल-देश, नर-पुर तक
खिचें चले जाते हैं उससे ऋषिगण और असुर तक
यह अधर्म भी किसी कार्य का कारण ही लगता है
रात घनी कुछ हो जाती है जब सूरज जगता है
लेकिन शांति उतरती कब है चंचल-सा इस मन में
कितने-कितने तर्क उड़ा करते हैं नीलगगन में।

‘‘द्विभुज नीति-विनाशक सम्मुख, क्यों लाचार चतुर्भुज
समझा नहीं कि रवि हो नभ पर, और तमस भी गुजगुज
आँखें है हैरान देख कर ऐसा दृश्य अनोखा
बादल को ही निगल रहा है, बादल का पनसोखा
आँखों से सब देख रहा हूँ, जो प्रत्यक्ष है पास
नेत्रा अगर मूंदे मैंने, तो हुआ काल का ग्रास
तुम मुझसे अब जो कुछ बोलो, जो भी राय बनाओ
मैं रहस्य से दूर विधर्मी, यह भी ढेंस लगाओ
कह दो परती हूँ, पराँट हूँ, कैसे पुण्य खिलेगा
यह भी, पतित नरों में मैं हूँ, मुझको नरक मिलेगा
लेकिन मैं अपनी ही जिद पर अड़ा हुआ हूँ अब तक
इसीलिए तो सबसे पीछे पड़ा हुआ हूँ अब तक
पीछे-पीछे ही चलने दो, सबसे दूर अकेला
कल तक जिसके साथ रहा था, छूट रहा वह मेला
लेकिन मैं भयभीत नहीं हूँ, अभी मित्रा कुछ बाकी
लौटाना तो होगा मुझको थाथी सभी धरा की।

‘‘सच कहते हो मैं झुक जाता, देवमूर्ति के आगे
मैं क्या हूँ, क्या मेरे मन में, सभी भावों को त्यागे
मैं झुक जाता, अष्टभुजा की देवी के सम्मुख
नर मुण्डों से सजी मूर्ति भी कब देती है दुख
जब आँगन में गाये जाते देवीगीत-मनौन
उस क्षण में मैं सुख से बोझिल हो जाता हूँ मौन
सोच-सोच कर मानव की उस मति की ललित कलाएँ
कितनी भव्य अलौकिक रचना; जैसी हो इच्छाएँ
मैं झुक जाता मानव की इस सृजन-शक्ति के आगे,
मैं क्या हूँ, क्या मेरे मन में, सभी भावों को त्यागे
और कभी औरों के सुख की खातिर ही झुक जाता
तुम्हीं कहो, ऐसा करने में मेरा क्या मिट जाता?
औरों को सुख मिले, खुशी हो, मेरे मन की साध
नहीं चाहता जीना जग में बनकर बधिक या व्याध
जग का मद या मोह न छूता, घर का मैं सन्यासी
रमा कर्म में, राग-द्वेष से बन कर बहुत उदासी
अपने हित दो कर्म किया, तो नब्बे कर्म जगत के
तेज मेरा भी उनमें, जो हैं दीप्त सौध मरकत के
लेना है कुछ तो बस जग से, देना है तो जग को
खुले गगन में उड़ने दो इस जग के सोनविहग को
कोई बंधन नहीं रहे, धरती के मुक्त पवन में
कोई सीमा नहीं रहे घन के भी नील गगन में
बंधे पैर या बंधे परों को क्या नसीब है होता
जहाँ जरूरत तैराकी की, वहाँ लगे क्यों गोता
जो कुछ आँखों से ओझल है किसको नहीं लुभाता
जिसको पाना बहुत कठिन है, पाने को ललचाता
जो अनन्त-अज्ञात लोक है, लोग कहाँ से जाने
इससे तो बेहतर-अच्छा है, अपना घर पहचाने
घर ही होता स्वर्ग; मिलेगा और कहाँ वह स्वर्ग
इसी लोक में छुपा हुआ है, वह जो है अपवर्ग
इन बातों पर और न जाने तुम क्या लगे कहोगे
जमा किया है तुमने जितना उसमें और बहोगे
मेरा तो है बोध संकुचित जो इन्द्रिय पर निर्भर
मेरे लिए यही से झरता शीतल अमृत झरझर
जीवन मेरा ही विनोद है, गंगा का मैं मन हूँ
सच कहता हूँ, क्षिति, जल, पावक, मारुत, नील गगन हूँ।"