चाँद तो थक गया, गगन भी बादलों से ढक गया
बन तो बनैला है-अभी क्या ठिकाना कितनी दूर तक फैला है!
अन्धकार। घनसार।
अरे पर देखो तो वो पत्तियों में
जुगनू टिमक गया!
बैजनाथ कांगड़ा, जून, 1950
चाँद तो थक गया, गगन भी बादलों से ढक गया
बन तो बनैला है-अभी क्या ठिकाना कितनी दूर तक फैला है!
अन्धकार। घनसार।
अरे पर देखो तो वो पत्तियों में
जुगनू टिमक गया!
बैजनाथ कांगड़ा, जून, 1950