चलाई दाँय तुमने रात भर खलिहान में भाई
उलझती विटप पत्रों से जहाँ हिम-चन्द्रिका आई
प्रकृति सम्पूर्ण बेसुध सी पड़ी थी नींद में गहरी
मिलाकर दृष्टि तारों से, बने थे तुम सजग प्रहरी।
करुण वह गीत तुमने कौन, पिछली रात में गाया
जिसे सुनकर उषा जागी विकल हो अश्रु बरसाया
हुए रक्ताभ दृग रो रो, हुआ गीला अरुण अंचल
लता-दु्रम पल्लवों से टपकता है यह वही दृगजल।
फौ फटते जुट गए उड़ौनी में लेकर तुम सूप
हुई विजित विपरीत वायु भी, ऐसी शक्ति अनूप
पैरों पर लोटता तुम्हारे यह सोने का ढेर
ललचाई आँखों से जिसको लोग रहे हैं हेर
विश्व जगत् है मुक्त द्वार पर खड़ा पसारे हाथ
वितरण और विभाजन कर देते हो अवनत माथ
ऋत्विज हो तुम महायज्ञ के, रहते हो पर मौन
काश! समझ सकता मानव, हे कृषक-पुत्र तुम कौन?