यह अख़बारी ख़बर सीधे कविता में प्रवेश कर रही है
इसलिए उठाने ही होंगे सपाटबयानी और नारेबाज़ी के
आरोप के साहित्यिक ख़तरे
ख़बर यह है
कि ख़ुदकुशी के बाद आदिवासी की लाश को
उसके परिजन चालीस किलोमीटर तक पैदल चलकर
ले गए उसका पोस्टमार्टम कराने के लिए
क्या देश के हिस्से की सारी सड़कें सिर्फ़ दिल्ली और भोपाल में ही बना दी गईं
कौन सी सुनामी बहाकर ले गई परिवहन के सारे साधनों को
कहाँ और कैसे बजाएँ सम्पूर्ण विकास के वादों और दावों
के सस्ते और कमज़ोर झुनझुनों को
कहाँ उड़ गए समानता के साथ जीने के अधिकार के
बड़े-बड़े हवाई-गुब्बारे
तो आदिवासी
मज़बूरी के बाँसों को लाचारी की रस्सी से बाँधकर
अपनी बेचारगी के कन्धों पर
ढो रहे हैं अपनी ग़रीबी की लाश
व्यवस्था की लाश लेकर चल रहे हैं आदिवासी
सुनते हुए भरपेट माँस खा चुके भेड़ियों का कर्णभेदी शोर ।