पिछले दिनों
जो धूप थी
वह थी हमारे गाँव की
उस धूप में थी रामधुन
थी गूँज भी अल्लाह की
चौपाल में हमने सुनी थी
'हीर' वारिस शाह की
लगती हवा थी
आरती जैसे
उतारे गाँव की
चुपचाप बहती झील थी
ओढ़े सुनहला शाल तब
दूधो-नहाई छाँव में
हर साँस थी जैसे परब
इसकी नहीं
उसकी नहीं
थी बात सारे गाँव की
उजड़ा हमारा गाँव
बीती धूप- अँधियारे हुए
अंधी गुफा से नाग निकले
जल सभी खारे हुए
सब पढ़ रहे
ले चुस्कियाँ
अब ख़बर हारे गाँव की