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ख़ामोश लम्हे / ज्ञान प्रकाश सिंह

धुँधलके में लिपटी आई है शाम, इन्तिज़ार की बेचैनी छिपाए हुए,
हवाओं में तैरते एहसासों से, तमन्नाओं की लहरें बिखरती रहीं।

तन्हाई के लम्हे ख़ामोश थे,शाम-ए-ग़म की फितरत परेशान थी,
तस्कीने इज़्तिराब बेहासिल रहा, बेबसी गिर्दो पेश फिरती रही।

रंग ज्यों गाढ़ा होने लगा शाम का, त्यों गली में सन्नाटा छाने लगा,
फ़ज़ा में चुप्पियाँ गूँजती रहीं, आहटें ख़ौफ़ का साया बुनती रहीं।

आया खिड़की से एक आलस भरा, झोंका हवा का उदासी लिए,
अख़्तर शुमारी कट तो गई, रात भर चश्म-ए-नम भिगोती रही।

साया सा उभरा शब-ए-स्याह में, आरज़ूयें दिल की मचलने लगीं,
ख़ामोशी में अपनापन सा लगा, यादों की बरसात होती रही।