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ख़िज़ाँ / शहनाज़ इमरानी

बदरंग आसमान और
चेहरा बदल गया धरती का
हवा ने फैला दिए हैं बाज़ू
दरख़्तों के हरे लिबास ने ओढ़ ली है बे-लिबासी
पीले पत्तों का नाच होता है अब धरती पर

जले हुए दिन का धुआँ फैलता जाता है
शाम और सूरज की बरसों पुरानी जंग में
सूरज अन्धेरे ग़ार में छुप गया है
इस लड़ाई मैं हमेशा हारने वाली शाम
उजले दिनों की ख़्वाहिश लिए
ज़ख़्मों पर धूल उड़ाती है।