मैं मुँह भर क़हक़हे पे क़हक़हे
जो यूँ लगाने की मशक़्क़त
अज़-सहर ता-शाम करता हूँ दयानत से
तो मज़दूरी भी वाजिब सी मिले कोई
बहुत दिन से मिरी आँखें
कभी भर भर नहीं रोईं
मैं मुँह भर क़हक़हे पे क़हक़हे
जो यूँ लगाने की मशक़्क़त
अज़-सहर ता-शाम करता हूँ दयानत से
तो मज़दूरी भी वाजिब सी मिले कोई
बहुत दिन से मिरी आँखें
कभी भर भर नहीं रोईं