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ख़ुद के ख़िलाफ़ / जयप्रकाश त्रिपाठी

खुद के ख़िलाफ़ कैसी चाल चल गया हूँ मैं।
बच्चों की तरह दौड़ कर मचल गया हूँ मैं।

इतना सम्भल-सम्भल के पाँव रखते हुए भी,
क्यों डगमगा रहा हूँ, क्यों फिसल गया हूँ मैं।

आहट जो बार-बार की, दस्तक कोई ऐसी,
लगता है कि दहशत में हूँ, दहल गया हूँ मैं।

आँखों में चुभ रहा कोई मौसम धुआँ-धुआँ,
सुलगा अभी-अभी है, अभी जल गया हूँ मैं।

अन्धेरा रात का था, रोशनी का इन्तज़ार
फिर शाम-सा क्यों सुबह-सुबह ढल गया हूँ मैं।

मंज़िल मेरी रफ़्तार से क्यों मुतमईन नहीं,
राहें बदल गई हैं या बदल गया हूँ मैं।