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ख़ुद से मेरा राब्ता रहा / नमन दत्त

कुछ इस तरहा से ख़ुद से मेरा राब्ता रहा।
ता-उम्र अपने आपको मैं ढूँढता रहा।

उस शख़्स की आवारगी, इक बंदगी हुई,
ख़ुद में ही रह के ख़ुद से जो सदियों जुदा रहा।

ख़ुद से तो ऐतबार मेरा उठ गया मगर,
हर इक क़दम, करम का तेरे आसरा रहा।

अपने ही घर में ज्यूँ कोई रहता हो अजनबी,
इस तरहा इस दुनिया से मेरा वास्ता रहा।

मंज़िल कहाँ नसीब में हम अहले-राह के,
इक-इक क़दम सफ़र की मेरे इब्तदा रहा।

अब तक समझ न आ सका ये राज़ ऐ "साबिर"
वो कौन है, मैं जिसको सदा पूजता रहा।