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ख़ुशबुओं ने हठ तजे / यश मालवीय

फिर हरे होने लगे
अनुभूतियों के वन
छूप में ही मुस्करायी
एक छाँव सघन
एक दुबली मेड़ जैसी
धूप तिरछे घूमती

होठ झरने के
ज़रा सा थरथराकर चूमती
झील में गहरे कहीं
डुबकी लगाता मन
ओस के कण फूल जैसे
किरन धागों में सजे
हवा ने जब छुई टहनी
ख़ुशबुओं ने हठ तजे

लगे सूर्योदय सरीखा
हर पहर, हर क्षण
आँख भर देखा गगन
फिर मेघ बरबस छा गये
शाख से जा कर उलझते
ये किधर से आ गये ?
खड़ी एड़ी पर पहाड़ी
उठाती गर्दन