Last modified on 1 जनवरी 2010, at 20:17

ख़ुशबू / विमल कुमार

ख़ुशबू भी कितनी अन्तरंग है
वह हमारे तुम्हारे रिश्तों को बयाँ कर रही है
बता रही है
साँसें एक दिन किस तरह
गुत्थम-गुत्थ हो गई थीं, फिर लहरें किस तरह
उठीं थीं, फिर
आग... फिर चिंगारियाँ।