हो क्यूं न बुरा गम से ख़वारिज<ref>जो खारिज हो गए हो</ref> का दहाड़ा?
जड़ पेड़ से कुफ्र<ref>ख़ुदा को एक न मानना</ref> उनका न क्यूं जाये उखाड़ा?
घर तैश<ref>क्रोध</ref> मुख़ालिफ़<ref>विरोधी, शत्रु</ref> का रहे क्यू न उजाड़ा?
”ले नाम अली“ जब कहूं ललकार जबाड़ा<ref>बुलन्द</ref>।
दरियाये फ़लक<ref>आसमान</ref> का भी दहल जाये कड़ाड़ा<ref>नदी का ऊंचा किनारा</ref>
पहले तो पयम्बर<ref>ईश्वर का सन्देश लाने वाला</ref> से लड़ा था वह कड़क के।
रुस्तम<ref>एक मशहूर पहलवान</ref> के तई ठोंक ले, दे ज़ाल<ref>रुस्तम के परदादा</ref> को धक्के।
छुट जायें वहां सामो<ref>रुस्तम के पिता का नाम</ref> नरीमान<ref>रुस्तम के दादा का नाम</ref> के छक्के।
हैं शाह की जु़रअत<ref>साहस, हिम्मत</ref> के जहां धूम धड़क्के।
नेजों<ref>भाला</ref> के तई<ref>को</ref> आन के मैदान में गाड़ा॥2॥
दुखती थी मेरे शाह की जब आंख सरासर।
पेश आया जभी मारिकए<ref>युद्ध</ref> क़िलअए<ref>किला, खै़बर के किले का युद्ध</ref> खैबर।
इस वास्ते घर छोड़ गये उनको पयम्बर।
और आप नबी लेके चले दीन का लश्कर।
झंडों के तई आन के मैदान में गाड़ा॥3॥
दिन रात मची आन के खै़बर की लड़ाई।
और फ़तह कई रोज़ तलक हाथ न आई।
ले नादेअली<ref>एक दुआ का नाम</ref> हक़ ने पयम्बर को भिजाई।
जिब्रील ने यह बात वहीं आन सुनाई
यह गढ़ तो किसी तरह न जावेगा उखाड़ा॥4॥
और यूं ही बहुत रोज़ तलक तुम से लड़ेगा।
लश्कर पे लड़ाई का बड़ा बोझ पडे़गा।
पामाल<ref>पददलित</ref> न हो, ख़ाक में हरगिज न गड़ेगा।
जब तक न अली आन के इस गढ़ पे चढ़ेगा।
यह गढ़ तो उसी शाह से जावेगा उखाड़ा॥5॥
यह सुनते ही हज़रत ने मेरे शाह को बुलाया।
आये तो वहीं छाती से बस अपनी लगाया।
आंखों में लबेपाक<ref>थूक</ref> लगाकर यह सुनाया।
इस फ़तह का है हुक्म तेरे नाम पे आया।
बेशक यह मकां तुम से ही जावेगा उखाड़ा॥6॥
यह सुनते ही हैदर<ref>हज़रत अली</ref> ने, ज़र्राख़ोद पहनकर।
दुलदुल<ref>एक मादा खच्चर जो इस्कंदरिया के शासक ने हज़रत मुहम्मद साहब को भेंट किया था और उन्होंने हज़रत अली को दिया था।</ref> वेरपेचढ़े कहके, जो अल्ला हो व अकबर।
आये वह वहां पर था जहां क़िलए खै़बर।
कावे<ref>घोड़े को फेरना या मोड़ना</ref> को लगाकर दिया रहवार<ref>तेज़ रफ़्तार</ref> को चक्कर।
नेजे़<ref>बर्छी, भाला</ref> को हिलाया कभी तिरछा कभी आड़ा॥7॥
कहते हैं कि खै़बर है बड़े कोह<ref>पहाड़</ref> के ऊपर।
गिर्द इसके धरा है वहां एक सख़्त सा पत्थर।
दुलदुल को फिरा शाह ने दरवाजे पे आकर।
हिम्मत कर उठा हाथ को मारा जो ज़मीं पर।
पत्थर में वही गड़ गया नेजा जूं ही गाड़ा॥8॥
जब आके हुए वां असदुल्लाह<ref>अल्लाह का शेर, हज़रत अली की उपाधि</ref> नुमाया<ref>जाहिर</ref>।
तब चलने लगे तीरो तबर<ref>कुल्हाड़ा, फर्सा</ref>, खंजरो पैकां<ref>बाण की नोंक, बर्छी की अनी</ref>।
दरवाजे पे ख़ैबर के जो बैठा था निगहवां<ref>देखभाल करने वाला</ref>।
हैदर के ख़तो ख़ाल पे जब उसका गया ध्यान।
मुंह देख के काफ़िर नेवहीं शाह को ताड़ा॥9॥
चिल्ला के जभी उसने यह आवाज सुनाई।
क्या बैठा है कमबख़्त है शामत तेरी आई।
जो कुछ कि निशानी थी बुजुर्गों ने बताई।
सब इस असदुल्लाह में देती है दिखाई।
अब गढ़ तेरा जाता है इसी दम में उखाड़ा॥10॥
दस्ती है नजूमों<ref>नक्षत्रों का प्रकाश</ref> की सफ़ेदी में सियाही।
जाते ही मकां लेवेगा यह शेरे इलाही।
यह तीर यह पैकान<ref>बाण की नोक, बर्छी की अनी</ref> है हैदर की गवाही।
आई है तेरे कुफ्र<ref>अकृतज्ञता, नाशुक्री</ref>, की कश्ती पे तबाही।
आया है वहीं शेर इलाही का निवाड़ा॥11॥
यह सुनते ही मरहब<ref>अरब के एक गैर मुस्लिम पहलवान का नाम</ref> को ग़रज तैश चढ़ आया।
आवाज से हारिस<ref>सरदार</ref> को वहीं उसने बुलाया।
ले लश्करे कुफ़्फ़ार<ref>ईश्वर को न मानने वाले लोग</ref> को बाहर निकल आया।
हैदर से चला लड़ने को वह देव का जाया।
तैयार किया लड़ने को कुश्ती का अखाड़ा॥12॥
सफ़<ref>कतार, लाइन</ref> बांधे उधर लश्करे कुफ़्फ़ार खड़ा था।
और एक तरफ को था अलम<ref>झंडा</ref> फ़ौजे अली का।
और दोनों तरफ़ तेज़ तबल<ref>ढोल</ref> जंग का बाजा।
आवाज़ नक़ीबों<ref>शाहकी सवारी के समय आगे आवाज लगाने वाले</ref> ने वहीं ज़ोर की दी आ।
और जंग का मैदां में जमा आके अखाड़ा॥13॥
पहले तो हुई जंग अमूदो<ref>सरदार</ref> की नमूदार।
फिर उनकी कमन्दों का खुला हलक़एं खूंख़्वार।
फिर बर्क़<ref>बिजली</ref> की सूरत से चमकने लगी तलवार।
शेरों से हुआ आन के मैदान नमूदार।
जूं राद<ref>बिजली</ref> के होता है गरजने में झंगाड़ा<ref>गर्जना, गूंज</ref>॥14॥
हर सिस्त से आते ही घटा छा गई घनघोर।
तीरों का बरसने लगा मेह आन के पुर ज़ोर।
शमशीर<ref>तलवार</ref> की बिजली भी चमकने लगी चहुं ओर।
ईधर से हुआ लश्करे हस्लाम का गुल शोर।
ऊधर से हर एक काफ़िरे बदकेश<ref>बुरे स्वभाव वाला</ref> दहाड़ा॥15॥
मरहब<ref>अरब का एक गैर मुस्लिम पहलवान</ref> ने अखाड़े में क़दम आके दिये गाड़।
हारिस भी उसी आन बना आन के एक ताड़।
ख़म ठोंक बदल त्योरी को बाजू के तई झाड़।
इस ज़ोर से नारा किया वां आन के चिंघाड़।
कोहक़ाफ़ के पर्दे में गोया<ref>जैसे, मानो</ref> देव चिंघाड़ा॥16॥
यूं कहने लगा लश्करे इस्लाम को ललकार।
आवे जो हो कोई तुम में पहलवान नमूदार।
तो हाथ मेरा देख ले और ज़ोर के आसार।
क्या ताब है मुझ से जो लड़े आन के एक बार।
मैंने तो सदा देव के सीने को है फाड़ा॥17॥
यह सुनते ही हैदर ने दी रख हाथ से समसाम<ref>तेज़ तलवार</ref>।
और सीधे चले आये अखाड़े में उठा गाम<ref>कदम, पैर</ref>।
कुम्बर<ref>हज़रत अली का गुलाम</ref> ने लिया दौड़ के दुलदुल के तई थाम।
मरहब से लड़े लेके जब अल्लाह का वह नाम।
आपस में लगा होने को ज़ोरों का झड़ाड़ा॥18॥
मरहब तो वहीं गिर पड़ा यह देख के सामां।
सब पर हुए मौला के मेरे ज़ोर नुमायां।
उस काफ़िरे बदकेश<ref>दुष्ट प्रकृति वाले</ref> के तब छुट गये औसां।
मौला ने उसे मार के ठोकर से उसी आं।
हारिस को कुचल कूट के, मरहब को पछाड़ा॥19॥
था उनमें ही एक और पहलवान ज़ोरआवर<ref>ताकतवर</ref>।
मरहब को उठाने लगा आकर वह ज़ोरआवर।
दुलदुल ने उसे देख के जल्दी से उछल कर।
एक लात जड़ी क़हर<ref>ग़जब</ref> की दांतों से पकड़कर।
यूं चाब लिया जैसे चबाते हैं सिंघाड़ा॥20॥
हारिस को गिरा शाम को मरहब के तई मार।
मैदां में किये फ़तह के आसार नमूदार।
हमला किया ख़ैबर के ऊपर आन के एक बार।
घोड़े के ऊपर हैदरी नारे के तई मार।
पाताल की जड़ से दरे खै़बर<ref>खै़बर का दरवाजा</ref> को उखाड़ा॥23॥
थीं शाह की जुरअत<ref>दिलावरी</ref> की जहां तक कि तरंगें।
सब कांप गई क़िलए खै़बर<ref>खै़बर का किला</ref> की उलगें।
कितने तो वहां भाग गए मार शलगें।
और कितने गए भूल वहां आन के जंगें,
हर गबु<ref>आग के उपासक, पहलवान, शक्तिशाली युवक</ref> को फिर तप से चढ़ा आन के जाड़ा॥22॥
तब उनपे चली आन के इस्लाम की तलवार।
भागा कोई जख़्मी, कोई बिस्मिल<ref>घायल</ref> कोई खूंबार।
ढूढे न मिला फिर किसी बदकेश का आसार।
सब दूर हुए गुलशने दुनिया से ख़सो ख़ार<ref>सूखी घास और कांटे</ref>
और कुफ्ऱ<ref>ईश्वर को एक न मानना</ref> के जंगल पे बजा दी<ref>मज़हब</ref> का कुल्हाड़ा॥23॥
की फतह ग़रज शाह ने खैबर की लड़ाई।
बदकेशों की पल मारते ही कर दी सफ़ाई।
कुफ़्फ़ार में इस्लाम की नौबत को बजाई।
खै़बर में फिरी आन के हैदर की दुहाई।
सब उड़ गया फिर आन के कुफ़्फ़ार का घाड़ा॥24॥
मैं मबह<ref>प्रशंसात्मक काव्य</ref> नज़ीर अब जो बनाता हूं हमेशा।
दौलत ही का इनआम मैं पाता हूं हमेशा।
खाता हूं, खिलाता हूं लुटाता हूं हमेशा।
खै़रात उसी दर से मैं पाता हूं हमेशा।
जारी है सदा मेरे शहंशाह का बाड़ा॥25॥