मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर
रात ही तारी रही इंसान की इदराक पर
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा
दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए इम्रां भी उठे
राम ओ गौतम भी उठे, फिरऔन ओ हामॉ भी उठे
मस्जिदों में मौलवी खुतबे सुनाते ही रहे
मन्दिरों में बरहमन अश्लोक गाते ही रहे
इक न इक दर पर जबींए शौक घिसती ही रही
आदमीयत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते रहे
जिहल के तारीक साये हाथ फैलाते रहे
ज़ेहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मात में
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में
कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाबे सहर देखा तो है
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है