Last modified on 6 दिसम्बर 2012, at 13:36

खामोशी / अभिमन्यु अनत

मेरे पूर्वज़ों के साँवले बदन पर
जब बरसे थे कोड़े
तो उनके चमड़े
लहूलुहान होकर भी चुप थे
चीत्कारता तो था
गोरे का कोड़ा ही
और आज भी
कई सीमाओं पर
बंदूकें ही तो चिल्ला-कराह रही हैं
भूखे नागरिक तो
शांत सो रहे हैं
गोलियाँ खाकर ।