खिंचा चला जाता है दिन का सोने का रथ
ऊँची-नीची भूमि पार कर
अब दिन डूब रहा है जैसे
कोई अपनी बीती बातें भुला रहा हो,
परती पर की दूब घास में अरज-अरझ कर
उजले-उजले अनबोये खेतों से हो कर
धूप अनमनी-सी वापस लौटी जाती है।
दूर क्षितिज पर महुओं की दीवार खड़ी है
जिस पर चढ़ कर सूरज का शैतान छोकरा
झाँक रहा है
चौडे़ चिकने पत्तों की ललछौर फुनगियों को सरका कर
नीड़ों में फिर लौटीं मँडराती पिड़कुलियाँ
निकल-निकल जाती हैं उस के चपल करों से
अब छायाएँ दौड़ गयी हैं लम्बी-लम्बी
फैल गया गोरी धरती पर झिंझरा-झिंझरा
चाँदी के काँटों वाला बाँका बबूल
निर्जल मेघों की हलकी छायाओं-जैसा ।
है खडा़ हुआ तन का खजूर
छाया का बोझा फेंक दूर निज मस्तक से
हारों से लौट रहे हैं जन
फैले-फैले मैदानों में बहने वाली
लग रहीं हवाएँ उन के चौडे़ सीनों से
उन के कंधों की लठिया जैसे सोने की
आगे-आगे गोरू जिन की चिकनी पीठों
पर साँझ बिछल कर चमक रही ।
लो होता श्रम का समय शेष
अब शीतल जल की चिन्ता में
लगती बहुओं की भीड़ कुँए पर
मँजी गगरियों पर से किरणें घूम-घूम
छिपती जातीं पनिहारिन के साँवल हाथों की चूड़ियों में
धीरे-धीरे झुकता जाता है शरमाये नयनों-सा दिन
छाया की पलकों के नीचे
लो डूब गया आलोक धवल
अम्बर में सातों रंग छोड़
वे रुके हुए,ऊदे मेघों की बाँहों में
हैं श्याम धरा,रंगीन गगन
हो गयी साँझ, सो रहा सत्य, जग रहे सपन।