अंधेरा हो भी तो
टिक नहीं सकेगा
न रह सकेगा
रंग बदलकर ही
दिप-दिप करती लौ का-सा
उजास जो है
तुम्हारे अंग-अंग में
यह कौंध ही तो
रास्ता दिखाती है
फिर उधर ही खिंच आता है
मन-पतगा मेरा !
अंधेरा हो भी तो
टिक नहीं सकेगा
न रह सकेगा
रंग बदलकर ही
दिप-दिप करती लौ का-सा
उजास जो है
तुम्हारे अंग-अंग में
यह कौंध ही तो
रास्ता दिखाती है
फिर उधर ही खिंच आता है
मन-पतगा मेरा !