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खिड़की के पार / रश्मि रेखा

चौखट की तरह जड़ दी गई खिड़की के पार
देखती है वह अनंत दृश्य
सड़क से गुज़रते हुए
सड़क पर बनते हुए
जिसमे हमेशा शामिल है वह
एक अभाव की तरह
दृश्य के अदृश्य हो जाने के बाद भी

खिड़की की सरहदों के पार
आती-जाती सवारियों,लाउडस्पीकरों और जिंदगियों
के जिन्दा शोरगुल के बीच
वह बाँटना चाहती है
दवा की शीशी पकड़ें धीरे-धीरे लौटती
उस बहुत उदास औरत का दुःख
या जीविका की तलाश में खाली टोकरी
का असह्य बोझ ढ़ोते उस आदमी का दर्द

खिड़की की सींखचों के अन्दर
अकेले चाँद के साथ सितारों से भरी रात
या सूरज के उजास भरे दिन में भी
वह अक्सर नहीं रोक पाती है
आँखों की दहलीज पार करते आँसुओं को
जब लोगों के मन की इच्छा-भाषाऍ जान
उन्हें पूरा न कर पाने की परवशता में
उसकी आत्मा तक खरोंच डाली जाती है
तब इन सलाखों से देखती है वह
आकाश के फैलाव में उडान भरते डैने
खुली सड़क पर चलते हुए पाँव
हवा के आँधी में तब्दील होने के अनेक रंग

फ़िर अपने भीतर खुलती उस खिड़की में
खोजती है अपने उन पंखों को
जो पिता ने आते समय दिए ही नहीं
माँ ने चुपचाप रख लिए थे अपने पास
बक्से में रखे अपने कटे पंखों के ऊपर