खिली है
ख़ूब छिटकी
पारदर्शी चान्दनी !
उलटे पड़े हैं मगन मौन,
रेत पर लेटे,
सन्तुष्ट कछुए,
पीठ से धरती दबाए —
आसमान को पेट पर उठाए !
नदी पीती है
प्रकाश-प्रकाश !
पानी की नहीं —
प्रकाश की बहती है नदी
यथार्थ की शिलाएँ —
शाप से मुक्त,
किनारे बैठी
अहिल्याओं-सी हंसती है ।
और पुल
खम्भों पर खड़ा
आवागमन का मार्ग बना है !
18 मार्च 1980
(पारदर्शी चान्दनी में केन-किनारे का दृश्य)