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खुरों की तकलीफ़ / कुमार कृष्ण

उस जगह कविता के शब्दों पर
जितनी बार घिसता है लोहा
बोलने लगते हैं शब्द
किसी उदास प्रेमी की उँगलियों पर
बज उठती है काठ की मेज
किसी कोने में
अच्छी तरह जान लो तुम
यह बर्मन दा का नहीं
लोहे का संगीत है।


मेरा दोस्त खड़ा एक कोने में
नहीं कर सकता बात
मोलाइस के संघर्ष पर
वह हल करता है
सुबह से शाम तक
लोहे के संगीत पर
रोटी का गणित।

मैं जब भी जाता हूँ उस जगह
हम अक्सर
रोटियों की गन्ध पर बात करते हैं
मैंने उस जगह पहली बार
रोटी को बोलते हुए सुना था।

पूछ बैठा था अचानक अपने दोस्त से
यह क्या रोटी के हँसने
या रोने की आवाज़ है?
नहीं यह सिजलर है
सम्भ्रान्त लोगों को लुभाने का तमाशा
रोटियाँ तामशगीर हो गई हैं।

काठ के कटोरों में
बोलने लगी है रोटी
उस जगह हर आदमी
मवेशियों के अधिक करीब है।

जिस किसी जगह
जब कभी बोलती है रोटी
बदली हैं हुकूमतें मेरे दोस्त,
रोटी का बोलना सही अर्थ में
देश के नक्शे का बदलना है।

मौसम बदल रहा है
बेखबर है रेस्तराँ की भीड़
लोहे की तकलीफ़ और मौसम
दोनों से
मौसम बदलने का मतलब
फूलों की नस्लों पर
बात करना नहीं
फसल की उम्र पर बात करना है
चलो, गोल अँधेरे से बाहर निकलकर
गाँव की ओर चलें।

सिजलर बोल रहा हर खेत में
एक जैसी बोली
लोहा कविता पर नहीं
कविता लोहे पर बज रही है
मैं ले आया हूँ तुमको उस जगह
जहाँ गर्भवती औरत
खाकर मुट्ठी भर सत्तू
गा रही है कोई
पुराना लोकगीत
यह मवेशियों के त्योहार का दिन है
खुरों की तकलीफ़ में
शामिल होने का दिन
आज हम रोटी की जगह
जूतों पर बात करेंगे।