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खुलकर हँसना–जीना / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

खुलकर हँसना–जीना भी जब,
मजबूरी बन जाए
थके हुए रिश्तों का तर्पण
तब बहुत ज़रूरी है ।
काले कोसों कौन बसा है
कौन बसा आँगन में,
सबसे दूर हुआ करती जो
वह मन की दूरी है ।
दर्द भला कैसे समझेंगे
वे पत्थर दिल वाले,
हाथों में भी पत्थर हरदम
फिर समझ अधूरी है ।