अरे ओ खुलती आँख के सपने!
विहग-स्वर सुन जाग देखा, उषा का आलोक छाया,
झिप गयी तब रूपकतरी वासना की मधुर माया;
स्वप्न में छिन, सतत सुधि में, सुप्त-जागृत तुम्हें पाया-
चेतना अधजगी, पलकें लगीं तेरी याद में कँपने!
अरे ओ खुलती आँख के सपने!
मुँदा पंकज, अंक अलि को लिये, सुध-बुध भूल सोता
किन्तु हँसता विकसता है प्रात में क्या कभी रोता?
प्राप्ति का सुख प्रेय है, पर समर्पण भी धर्म होता!
स्वस्ति! गोपन भोर की पहली सुनहली किरण से अपने!
अरे ओ खुलती आँख के सपने!
मेरठ, 25 दिसम्बर, 1946