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खुश-नसीब / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’

चेहरे से कई लोग यहॉ खुश-नसीब लगते हैं
कत्ल करके भागे हुए वो बद-नसीब लगते हैं।
कि सर के बाल अब मकबरे के घस लगते हैं
बदन के अब कपड़े मैखाने के ग्लास लगते हैं।
किसे अच्छा और किसे आप खराब कहिएगा
गौर से इनको देखो आस्तिन के सॉप लगते हैं।
मैं सच कहता हूॅ बात अपनी पराई नहीं दोस्तों
मंदिर और मस्जिद की ये लड़ाई नहीं दोस्तों।
अहमदाबाद या गोधरा फिर दोहराई न जाये
अयोध्या मथुरा इस तरह बीच में लाई न जाये।
ढूंढना है गर उनको तो अपनें ही दिल में ढूंढिए
हाथ खून से रंगकरए मत बनो कसाई मेरे दोस्त।
कि कब्र में रोते हैं मुर्दे कफन से पोछते हैं ऑसू
आज ये आतंकवाद न जानें क्या-क्या सोचतें हैं।
कर्मो से अपने साई बाबा कितने करीब लगते हैं
मजहब थी न धर्म उनका कितने अजीब लगते हैं।
एक हम हैं जो दूसरे के पैर पर कुल्हाडी मारते हैं
गिरगिट सा रंग बदलते दूसरो को जलिल करते हैं।
बदल दो अपनी नीति तुलसी और कबीर बन जाओ
वतन के लिए सीमा पर लड़नेवाले कर्मवीर बन जाओ ।